कई गोलियां दागते हैं
कई गोलियां दागते हैं
ख्वाहिशों के आसमान में
उम्मीदों के परिंदे
ऊंचाइयों की सीमा लाघंते हैं।
अपने अंतर्मन की दीवारों
पर बनी खूंटीओ पे
कुछ झंझोरते हुए सवालातों की
पोटली टांगते हैं।
क्यों ना हम सब अपने अपने
गिरेबान में झांकते हैं।
अपनी पतलून में चाहे
कितने भी पैबंद हो पर दूसरों
की सिलवटों को एक-एक
कर छांटते हैं।
देख के जूते बंदे की
हैसियत आंकते हैं।
लगाकर छप्पन भोग भगवान को,
भूखे बच्चे को डांटते हैं।
भुलाकर अपनों को
गैरों में सुख दुख बांटते हैं।
सीमित जरूरतों के लिए
असीमित चादरें तानते हैं।
जो नसीहतें दूसरों देते हैं
क्या उन्हें हम मानते हैं।
अपने दुख दर्द के लिए
दिन रात जागते हैं।
औरों की मुसीबत पर
क्या कभी भागते हैं।
जाने अनजाने अपनी जुबान से
"कई गोलियां दागते हैं।"