ख्वाबों के दो पल
ख्वाबों के दो पल
धागे को तुम से बांध लेने से पहले,
मैंने ये जानना जरूरी नहीं समझा
की ये दूरी कहा तक जायेगी, सोचा
बस अब जो हो कुछ तो बेहिसाब हो।
तुमसे मिलना और ये फरवरी कुछ
ऎशी खास सी लगती है मुझे
जैसे पिछले जन्म की मेरी कोई खास सहेली,
थोड़ी देर के लिए इस जन्म में मुझे फरिश्ते के
रूपमे उधार वापस सी मिल गई हो।
ये बेहिसाब कहलाता एक रिश्ता,
सारी खटी - मीठी यादों को
यूँ समेटता रहा जैसे जैसे
पल पल इससे कोई
सुंदर धागे से गुंद रहा हो।
ये रिश्ता किसी दिन समय की
सुनहरे पल में फसता नजर आया,
तो कुछ दिन बंध मुठ्ठी से रेत
का फिसल जाना जैसा लगा।
किसी तीसरे ने उसे नवाजा है तो वो है
पराई कहलाती ये मोबाइल की दुनिया ।
बेपरवाह मुफ्त में, वो हमें एक
दूसरे से यू जोड़ती रही
जैसे दो चार रुपए का मुनाफा
उसे भी हो जाए किसी दिन ?
ये कारवाँ बस कुछ इस तरह
आगे बढ़ ही रहा था।
हर शुभ दिन पर मेरे बोल
ने इसे नवाजा,
जिद और जज़्बात को भी
सूली पे चड़ा डाला।
जवाब में कुछ मीठे बोल ना
गुनगुना पाए,ठीक है
कुछ थोड़ी बहुत शिकायत
भी कर ली होती।
लेकिन कुछ घंटो, कुछ दिन,
कुछ साल क्या बीते, रिश्ते पर
२ ० १ ८। 🛫 २ ० १ ९
🕛 २ ० २ ०
आपकी बेपरवाह की चादर
इस तरह लपेट सी गई कि,
मेरी लाख कोशिशों के बाद भी
वो उलझता गया।
मुनासिब नहीं समझा तुमने
कभी इसे सहलाना ?
या फिर भीड़ में आपको
फुरसत ही नहीं मिली।
लाखों में असली हीरे को तुम
पहचान ना पाए क्या ?
जवाबदारी में नहीं आता
इसलिए मुफ्त में पराया कर दिया।
कभी कभी अनजान अकेले
यूँ हीं मुस्कराता सा यह रिश्ता,
बातो के बोल से कुछ
लड़खड़ाता सा मिला।
दूसरों की नजर को भी में
क्या दोष दूँ अब दूँ
तुम्हारी पलकें ही जब कहीं और
जमा के बैठी थी तो।
ये रिश्ता का काफिला
युही मुजरा सा गया,
वसंत जैसा यह रिश्ता
कुछ पानखर सा हो गया।
