कहूँ मुमताज़ या कोई अजन्ता की तुम मूरत हो
कहूँ मुमताज़ या कोई अजन्ता की तुम मूरत हो
कहूँ मुमताज़ या कोई अजन्ता की तुम मूरत हो
तराशा है तुम्हें किस ने, जो इतनी ख़ूबसूरत हो
सनम इक दौर था जब मैं तुम्हीं से दूर जाता था
मगर अब हाल यह है कि तुम्हीं मेरी ज़रूरत हो
किसी के मुस्कुराने से, कोई क्यों रूठ जाता है
हमारे दिल का ये शीशा, तभी फिर टूट जाता है
न जाने क्या लिखा है, हाथ की झूठी लकीरों में
जो अक्सर साथ होता है वही फिर छूट जाता है