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खुदगर्ज़

खुदगर्ज़

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कुछ लोग बहुत खुदगर्ज़ होते हैं

दूसरों के लिए वे सिरदर्द होते हैं

कितने दर्द सह लेते हैं वे यूं ही 

आह नहीं भरते वे मर्द होते हैं

ज़माने में कुछ कर गुज़र जाते हैं

उनके लिये ज़माने बेदर्द होते हैं

कंबल ओढ़के सोने वालों देखो !

बाहर मौसम कितने सर्द होते हैं

बहाने बनाने वाले लाखों मिलते हैं

बहाने नही करते वे चंद होते हैं

कितने ही छुपाआे तुम गुनाह यहाँ

उसके दरबार में सब दर्ज होते हैं

कितने अल्फ़ाज़ में उलझे हो 'धरम'

प्यार के यार सिर्फ ढाई अक्षर होते हैं...|

  

[ © डॉ धर्मेन्द्र मुल्हेरकर, नासिक ]



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