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Ruchika Rai

Abstract

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Ruchika Rai

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ख़्वाहिश

ख़्वाहिश

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पड़ी है चोट जब तभी तो मैं जगी हूँ,

ठोकरों के बाद ही मैं संभली हूँ,

जिन्दगी का तजर्बों से सीखा बहुत कुछ

खुद ही गिरकर खुद ही उठी हूँ।


नहीं है ख्वाहिश कोई मुझको उठाये,

गिरूँ जो मैं तो आगे बढ़कर मुझे सँभाले,

ख्वाहिश यही कि मेरी हिम्मत मजबूत हो,

मेरी मुश्किल का हल नहीं दूसरा निकाले।


नहीं चाहती कि दया दृष्टि कोई दिखाये,

ख्वाहिश यही की मुहब्बत कर वो जाए,

मेरे हौसलों की ताकत हो इतनी की

खुदा भी देखकर अचंभित हो ही जाए।


फूल की तरह मैं खुशबू फैलाऊँ,

मैं सदा जरूरत पर किसी के काम आऊँ,

टूटकर सँवरने का क्रम हो कुछ ऐसा,

जैसे पतझड़ के बाद बसंत आये।


हो तिमिर घना तो मैं रोशनी लाऊँ,

अँधेरे को चीरकर प्रकाश फैलाऊँ,

हो देखकर अचंभित हो सब इस तरह,

मैं जगत में अपना स्थान हूँ बनाऊँ।



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