ख़ुद की पहचान
ख़ुद की पहचान
हर शख्स आज यहां खुद को भुलाकर बैठा है
आईना देखकर भी वो खुद से अनजान बैठा है
कोई आवाज लगाता है,वो दौड़ा चला जाता है,
पर खुद की आवाज को वो अनसुना कर बैठा है
सबकी शक्लें वो जानता है और पहचानता है
पर खुद की पहचान वो खुद मिटाकर बैठा है
अपनी दास्तां क्यों तू सबको सुनाया करता है
पत्थरों पर क्यों तू अपना सर टकराया फिरता है
पहले ख़ुद की लौ को तू ख़ुद में तो जला ले,
क्यों अपने भीतर की आग तू दबाकर बैठा है