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Komal Chowdhari

Abstract

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Komal Chowdhari

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खामोशी सी रहती है

खामोशी सी रहती है

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अल्फ़ाजों की दुनिया में वो खामोशी सी रहती है 

भुलाकर अपने अस्तित्व को

किसी की परछाई बनकर जीती है 

खण्डहर पड़ी इमारतों को बस्ती  

इंसानियत से रुढेे मकानो को घर


और बिन मुरत के घर को मंदिर बना देती है

ब्याही है तुमने किसी कि बेटी

उसे नौकर का स्थान न दो 

छोड़ कर आई है तुुम्हारेे लिए

अपना घर बार उसे अपना हिस्सा मान लो


खो कर अपनी पहचान वो तुम्हें इंंसान बना देती है 

फर्ष पर बिखरे आटे को रोटी में ढाल देती है 

सुनसान पड़े आंगन को किलकारियों का घर दे 

बेजान सी तुलसी मे रिश्तौ का रंंग भर दे


मुश्किल तुम्हारे काम को पल भर में आसान कर दे

वो इंसान है दोस्तो पर खुद को पत्थर मान लेती है 

सिलकर अपने होंंठ सबके तानो को सह लेती है


टुकड़े अपने आंंचल के कर अपने

बच्चों को ढक देती है इस कल्पना चावला

और प्रतिभा पाटिल के दौर में

मुंशी प्रेमचंद की निर्मलाएँ भी रहती है।


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