कैसे 'होली' आती है ?
कैसे 'होली' आती है ?
जब नई तरंगे खिलती हैं, नित नई बहारें आतीं हैं,
जब धूप छांव का खेल शुरू, गर्मी भी घुल मिल जाती है।
तब रंगों की आंधी लेकर, सपनों को आज़ादी देकर,
लख रंग किरण की एक साथ, धरती पर गिर जाती है,
बस ऐसे होली आती है।।
जब जाति धर्म का गमछा भी, एक कोने में धर जाता है,
सब रंगों से हो सरोबार, ना धर्म भेद हो पाता है |
तब साल पुराने कपड़ों की, गठरी झटपट खुल जाती है,
और गुझिया, पापड़, रसगुल्ले, सब एक ही दिन बन जाता है,
बस ऐसे होली आती है ।।
त्योहारों के इस भारत का, कुछ रूप ही ऐसा खिलता है,
जब हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, एक रूप सा दिखता है |
तब रंगो की इस चादर में हर रंगभेद मिट जाता है,
पतझड़ की मायूसी छिन, तब लेकर बसंत की चहक महक,
बस ऐसे होली आती है ।।
बस इच्छा है, इन त्योहारों का, रंग हमेशा बना रहे,
फिर चहके सोने की चिड़िया, और एक गुलिंस्ता खिला रहे,
यूं ही खुशियों से भरा हुआ, ये भाव दिलों में वशीभूत,
सब त्योहारों को रंगित कर, बस ऐसे होली आती है।