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“कैनवस”

“कैनवस”

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कैनवस पर

रंग बिखेरते समय

तुम

मेरी छोटी सी तस्वीर में

रंग भरना

भूल गए शायद

 

तभी आज तक

किसी ने

इस चेहरे को जाना नही

पहचाना नही

पूछा नही किसी ने

कौन हो तुम?

 

रैक में पड़ी किताबों को भी

सालों बाद

पढ़ लिया जाता है

पर मुझे

इतनी नीचे रख दिया गया कि

दबी रही

‘मैं और मेरी आवाज़’

 

रंगों से पहचान करवाना

तुमने मुनासिब नही समझा

या फिर

मुमकिन ही नही था तुम्हारे लिए..

 

पर मुझे तो सब रंग अच्छे लगते हैं

सफेद से कुछ यूँ नाता बना दिया तुमने कि

धैर्य की मूरत के नाम से

जानी जाने लगी हूँ

 

अब मैं खुद में सब रंग भरूँगी

और अपनी तस्वीर पूरी करूँगी

तू भले ही मुझे

रूप बना या कुरूप

अब उसमें रंग मेरे अपने होंगे

 

तेरे ब्रश और रंगों के बिना

अब मैं इतराऊँगी

अब तेरे रंग नही

खुद के रंग बनाऊँगी


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