काया
काया
जब बैठी संवारने खुद को,
डूबी सोच में,
देख कर किराये की काया.
पहचान मै तो आयी सूरत,
मिट्टी से बनी ये काया की मुरत
देखती रही क्षण भर खुद को,
हुआ आभास नहीं निरंतर ये काया की छाया,
फिर लगी धूल शीशे पर कहती,
अंत तो तेरा भी मुझ धूल सा होगा।
