जो मिल सकते कुछ अल्फ़ाज़
जो मिल सकते कुछ अल्फ़ाज़
जो मिल सकते मुझे कुछ अल्फ़ाज़
तो मैं लिखती हमारी मुलाक़ातें
और उन मुलाक़ातों में हुई
कुछ कही और कुछ अनकही बातें।
मैं लिखती कितुम्हारे क़रीब बैठकर
उस ढलते सूरज को देखना भी
कितना ख़ुशगवार लगता था
और उस झील के पानी में
रोशनी के टिमटिमाते जुगनुओं को
निहारना जन्नत सा लगता था।
मैं लिखती वो अहसास
जो तुम्हारी आँखों में पढ़ लेती थी
तुम्हारी ख़ामोशी में भी मैं
अफ़साने हज़ार सुन लेती थी।
मैं लिखती वो लम्हे
जो हमने साथ बिताए थे
वो ख़ूबसूरत पल
जो ज़िंदगी की भागदौड़ में
बड़ी मुश्किल से चुराए थे।
जो मिल सकते मुझे कुछ अल्फ़ाज़
तो मैं लिखती हमारी मुलाक़ातें
और उन मुलाक़ातों में हुई
कुछ कही और कुछ अनकही बातें।
मैं लिखती वो सुकून...वो आराम
जो तुम्हारे हाथ थामने से मिलता था
तुम्हारी सोहबत की महक से,
वो मंज़र...और भी हसीन लगता था।
कुछ हर्फ़ चुराकर तुम्हारी ही बातों से
मैं लिखती वो तमाम जज़्बात
जो ज़हन में मेरे दफ़्न हैं
वो बेहिसाब बातें जो लबों तक आकर
अक्सर रुक जाया करती थीं।
काश....मिल जाते वो चुनिंदा लफ़्ज़
जिन्हें पढ़कर तुम्हें भी होता वही अहसास
जो मेरी रूह में क़ाबिज़ है।
मैं लिखती
वो तन्हा रातें
जो तेरे होने का अहसास ख़ुद में समेटे थीं
वो बरसती दोपहर
जिसकी बूँदों में क़ैद तेरी आहटें थीं।
मगर ये हो नहीं सकता
ये हो नहीं सकता...
कि जब जब तुम्हारे ख़्याल में डूबकर
क़लम को थामा है।
ना हर्फ़ मिलते हैं...ना लफ़्ज़ सजते हैं
ना अल्फ़ाज़ संवरते हैं
रह जाता है वो काग़ज़ कोरा ही हर बार
मेरी बेतहाशा कोशिशों के बाद भी
तुम और तुम्हारी यादें...क़ैद ही रहना चाहती हैं
मेरे दिल के किसी अंधेरे कोने में।
मगर फिर भी...
जो मिल सकते कुछ अल्फ़ाज़
तो मैं लिखती हमारी मुलाक़ातें।