जो मैं तुमसे तोहफा माँगू ,तुम दोगे क्या?
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू ,तुम दोगे क्या?
सुनो ना, एक बात कहनी हैं,
तुमसे, तुम सुनोगे क्या,
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू,
तो तुम दोगे क्या,
तोहफे में नही मांगा हैं,
कोई महंगी कारीगरी का कपड़ा,
सुनो मुझे तो चाहिए,
तुमसे तुम्हारी आवाज़ का सिर्फ एक टुकड़ा।
जिसमे कैद है, सुकून ए ज़िंदगी
जिसमे महफूज़ हैं इबादत ए बंदिगी,
मेरी अल्फ़ाज़ -ए- भावना को तुम समझोगे क्या,
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू
तो तुम दोगे क्या ?
तुम्ही ने कहा था ना, मुझसे
इबादत भी एक तोहफा है
जहाँ प्रेम के साथ ,एहसास ,अल्फ़ाज़,जज़्बात
को भी शामिल होने का पूरा मिलता मौका है।
मीरा सा माधुर्य,
निस्वार्थ ,पाख , यह सूफी इबादत को भी इस आवाज़ के रिश्ते में तुम शामिल करोगे क्या,
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू, तुम दोगे क्या?
अगर तुम कह दो,
हाँ, बिल्कुल सम्भाल लो,मेरे इस आवाज़ के टुकड़े को।
तो मैं सम्भालना चाहूँगी
अपने कानों की गुंजन में
जहाँ गूँजते हैं, अनमोल गीत
वहाँ मैं शामिल कर लुंगी,
तुम्हारे आवाज़ के उस टुकड़े की प्रीत
उस आवाज़ के कुछ अंश को रखना चाहूँगी
अपने तकिए के सिरहाने के पास,
जहाँ मैं आँखे करके बंद
ख्वाबो में सुन सकूं तुम्हारा मधुर स्पंदन।
महसूस कर बातों आवाज़ के अल्फ़ाज़ रूपी चंदन,
लगता है, उस आवाज़ को,
ईश्वर ने मेरे लिए ही भेजा हैं, मेरे लिये,
पर सुनो,
तुम्हारी आवाज़ पर वैसे तो ,
शायद मेरा कोई अधिकार नही,
क्योकि तुम्हारी आवाज़ सिर्फ तुम्हारी है,
और सिर्फ तुम्हारी ही होनी भी चाहिए।
मगर जो तुम्हे सुनते हैं,
उनको तो तुम अपनी आवाज़ का तोहफा दे चुके हो,
क्या तुम अपनी उसी आवाज़ का,
एक छोटा सा टुकड़ा,
मुझे भी सुपुर्द करोगे क्या
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू ,तुम दोगे क्या ?
लोगों ने लिखी होगी,
हुस्न ए तारीफ,पर छोड़ो ना,
मुझे लिखनी है,
तुम्हारी अल्फ़ाज़ ए तारीफ ,आवाज़ ए तारीफ,
मुझे लिखनी है,
तुम्हारी उस निर्मल भाव की धारा को ,
जिसमे,मैं अक्सर पा लेती हूँ,
सकारात्मकता
क्या आवाज़ का टुकड़ा,मुझे देकर
तुम मुझे मुस्कुराने की वजह सौँपोगे क्या ?
जो मैं तुमसे तोहफा माँगू,
तुम दोगे क्या ?