जीने दो मुझे
जीने दो मुझे
मैं कविता हूँ,
मैं कभी कहानी भी हूँ,
कभी-कभी निबंध
और संस्मरण भी,
मेरे अनेक रूप हैं,
मेरी अनेक शैलियाँ भी।
मैं साहित्य हूँ।
जानते हो मेरी
जान कहाँ है
कहाँ मेरी
आत्मा बसती है।
क्या कहा?
कागज़ पर,
क्या?? कलम में,
ओह!! स्याहियों में।
कहाँ समझ पाए
मेरा मर्म तुम,
मैं तो आज मोबाइल
के स्क्रीन पर हूँ,
तुम्हारी उंगलियों के
पोरों से लिखा जाता
स्याही और कागज़
के बिना।
ताड़पत्र और
शिला लेखों से निकल
स्याही और कलम से
बंधनों से मुक्त
मुझे माध्यमों की
आवश्यकता नहीं।
जानते नहीं क्या तुम?
आत्मा निर्गुण होती है,
निराकार।
हाँ, सही जाना,
मेरी आत्मा
शब्दों में है,
भावों में हैं,
विचारों में है।
जिन्हें उपेक्षित
कर रखा है तुमने।
इन्हें कलुषित मत करो,
मैं मर जाऊँगा।
मुझे जीने दो।
मुझे जीना है।