STORYMIRROR

प्रवीन शर्मा

Abstract

3  

प्रवीन शर्मा

Abstract

जब तक मैं कंवारा था

जब तक मैं कंवारा था

1 min
196


जब तक मैं कंवारा था

मजाक और झूठ का अंतर नही समझ पाया

अब जानता हूँ सच तो लोग खुद से भी नही बोल पाते

जब तक मैं कंवारा था

किसी को दर्द में देख उदास हो जाता था

अब देखता हूं तेहरवीं का जश्न तो छटी से बड़ा होता है

जब तक मैं कंवारा था

मानता था मुझे कोई दर्द नही, मेरी माँ है तो

अब जानता हूँ कुछ दर्द किसी को बताए तक नही जाते

जब तक मैं कंवारा था

लगता था पापा कुछ भी ला सकते है,मेरी खुशी के लिये

अब लगता है बच्चों की खुशी की कीमत जिंदगी के बीस साल होती है

जब तक मैं कंवारा था

आंखों में हूरों के सपने तैरते थे

अब पहचान हुई उनके चेहरों के पीछे कितनी कालिख पुती होती है

जब तक मैं कंवारा था

मुझे बताया गया एक नौकरी और एक पत्नी काफी है

अब बताने से भी कतराता हूँ शर्माजी, वो सब एक गलतफहमी होती है

जब तक मैं कंवारा था

मुझे कुंवारेपन से चिढ़ सी होती थी

अब चाहता हूँ ताउम्र उसी में गुजरती तो अच्छा होता।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract