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प्रवीन शर्मा

Abstract

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प्रवीन शर्मा

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जब तक मैं कंवारा था

जब तक मैं कंवारा था

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जब तक मैं कंवारा था

मजाक और झूठ का अंतर नही समझ पाया

अब जानता हूँ सच तो लोग खुद से भी नही बोल पाते

जब तक मैं कंवारा था

किसी को दर्द में देख उदास हो जाता था

अब देखता हूं तेहरवीं का जश्न तो छटी से बड़ा होता है

जब तक मैं कंवारा था

मानता था मुझे कोई दर्द नही, मेरी माँ है तो

अब जानता हूँ कुछ दर्द किसी को बताए तक नही जाते

जब तक मैं कंवारा था

लगता था पापा कुछ भी ला सकते है,मेरी खुशी के लिये

अब लगता है बच्चों की खुशी की कीमत जिंदगी के बीस साल होती है

जब तक मैं कंवारा था

आंखों में हूरों के सपने तैरते थे

अब पहचान हुई उनके चेहरों के पीछे कितनी कालिख पुती होती है

जब तक मैं कंवारा था

मुझे बताया गया एक नौकरी और एक पत्नी काफी है

अब बताने से भी कतराता हूँ शर्माजी, वो सब एक गलतफहमी होती है

जब तक मैं कंवारा था

मुझे कुंवारेपन से चिढ़ सी होती थी

अब चाहता हूँ ताउम्र उसी में गुजरती तो अच्छा होता।


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