जैसी करनी वैसी भरनी
जैसी करनी वैसी भरनी
उम्र नादान सोच भी अपरिपक्व
दिल परिंदा उड़े मस्त - मस्त
सिर्फ़ चाहे, कोई न उसको रोके
जहां मर्ज़ी जो करें, कोई न उसको टोके।
उड़ते - उड़ते मिली एक डाल
सोचा थोड़ा कर ले विश्राम
डाल लगी प्यारी हरी - भरी
मिला" दिले सुकुं" नयनों को ताज़गी,
फलों से लदे पेड़, अनाज़ से भरे खेत
सोचा मन ,पा ली जन्नत
बावरा मन झूमने लगा पल - पल
याद कर उन नजारो को
जीने लगा उन संग मन ही मन।
सुबह हो या शाम हो
उड़े दिल चाहे पाना ,उस उपवन को
मना किया ""साथी - सहारो"" ने
समझ जा ए "नादान ,"
"न" कर लालच उस डाली का
वो पल भर का एक धोखा है,
मान जा कहना ,ना जा हर दम उसको रोका है,
कौन माना है , जब"" जुनून” सिर पे सवार हो
अपना ही सब अच्छा लगता है,जब
""पागलपन"" हद से पार हो,,,,
दिमाग़ सोचता नहीं,आंखे बंद हो जाती हैं,
सारी दुनयां फिर बेगानी नजर आती है।
उड़ गया परिंदा, छोड़ अपना घर - आंगन
बना घोसला , रहने लगा उस डाल पर।
सजाने लगा सपने , छोड़ सारे अपने,
कुछ सालों में जुनून उतरा,
याद कर अपने घर - आंगन को
जी उसका भी मचलने लगा,
पर क्या करे मजबूर वो पड़ गया
जाएं कैसे एक अदृश्य जाल में फंसता चला गया।
था उसका ही निर्णय की उड़ जाना है,
नए उपवन में ही उसका ठिकाना है,
अब जाए वापिस कैसे,
जब नहीं उसका वहां कोई ठिकाना है।