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Vikram Kumar

Abstract

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Vikram Kumar

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इंसान ढूंढ़ना मुश्किल है

इंसान ढूंढ़ना मुश्किल है

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विलुप्त हो गई जैसे अब पहचान ढूंढ़ना मुश्किल है

आज की अपनी दुनिया में इंसान ढूंढ़ना मुश्किल है


स्वार्थ लोभ मद मोह काम का कोप हो गया है ऐसा

ढूंढे़ से भी नहीं मिलेगा लोप हो गया है ऐसा

मानवता के आयाम सभी हैं कैद हुए अपनी हद में

कैसे किसी को देखे कोई सब उलझे हैं अपने मद में


सब बन बैठें हैं पत्थर के बुत जान ढूंढ़ना मुश्किल है

आज की अपनी दुनिया में इंसान ढूंढ़ना मुश्किल है


हरि भजन भी भूल के सारे खोए अपने जीवन में

ईश्वर से पहले सी श्रद्धा नहीं किसी के भी मन में

पाके सबकुछ उनसे ही सब दंभ में फूल के बैठे हैं

जिनके दम से पाया जीवन उनको ही भूल के बैठे हैं


मात-पिता के त्यागों का गुणगान ढूंढ़ना मुश्किल है

आज की अपनी दुनिया में इंसान ढूंढ़ना मुश्किल है।


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