इक मीठा समंदर
इक मीठा समंदर
सुलझाने चला हूँ औरों को,
खुद ही उलझता जा रहा हूँ,
कोई समंदर ऐसा तो नहीं,
जिसमें लहरें ना उठती हो...!
मैं कैसे कसम खा के कह दूँ तुम्हें
इस वक्त जैसा हूँ वैसा मुद्दतो बाद मिलूं?
तुमसे क्या शिकायत करूँगा...
जब खुद ही को खो चूकुँगा मैं|
इन आँखो के सपने न अपने है न पराये...
दूर दराज बसे हुए है मेरी उम्मीदों के सहारे,
यूँ ही साँसो का आना-जाना बना रहेगा...
इक दर्द को पाला है रूह में
फिर भी लगता हूँ मैं तन्हा...तन्हा..
राही अकेला...
इक मीठा समंदर मेरी भीतर भी गूँजता है...!!!