ईश्वर को भी छल रहा है
ईश्वर को भी छल रहा है
ईश्वर को भी छल रहा है
सारे शहर में सुनाते हैं,
आज उस दरख़्त की दास्तान।
टूट कर एक-एक पत्ता,
आज पूरा जड़ से उखड रहा है।
कौन है यहां सच्चाई का पुलिंदा,
हर शख्स नकाब लिए फिर रहा है।
छू कर ऊंचाइयां आसमानों की,
जमीर देखो किस कदर गिर रहा है।
कुछ देर खुद से बतिया कर तो देखो,
हम बदल रहे हैं, जहाँ बदल रहा है।
वक्त की दाल पर बैठा परिंदा,
ये कैसे उड़ाने भर रहा है
सूरज भी भुला बैठा है अपनी रौशनी,
चाँद भी आहें भर रहा है।
सुबह अभी दूर है काफी,
चारों तरफ अँधेरा बिखर रहा है।
अपनी ही चौखट पर बैठकर,
घर की तालाश में भटक रहा है ।
भरे पेट होकर भी,
दुसरे का निवाला झपट रहा है।
लहरों को छोड़कर ये,
सागर किस ओर निकल रहा है।
संस्कारों की सी डी छोड़कर,
बैसाखी के सहारे उछल रहा है।
सुलझाने की कोशिश में,
सबकुछ उलझ रहा है।
जमीं पे तो पॉँव जम नहीं पाए,
चाँद पे घर बनाने को मचल रहा है।
पत्थरों की ज़रुरत नहीं आग लगाने को,
अब तो हर शख्स चिंगारी लिए फिर रहा है।
पहन के साधुओं का चोला,
धर्म को भी नीलम कर रहा है।
अध्यात्म की आड़ में देखो कैसे ?
ईश्वर को भी छल रहा है।
