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Sandeep Kumar

Abstract

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Sandeep Kumar

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हत्यारे

हत्यारे

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एक परिंदे जब

आकाश में उड़ना चाहते हैं

उड़ने से पहले उनके सामने

अखंड झमेले खड़ा हो जाते हैं।


लंबे आकाश अनियंत्रित दूरी

दिखने उनको लग जाते हैं

ऐसा लगता अंत नहीं

कहीं मिलने वाले हैं।


सपनों को चकनाचूर

धीरे धीरे कर जाते हैं

उड़ने से पहले ही

पंख उनके कट जाते हैं।


कहीं सहारा नहीं उसको

देखने को मिल पाते हैं

बेचार बेबस पड़ा यहीं

फड़फड़ाते रह जाते हैं।


अपना दुखड़ा अपनों को

सुनाते सुनाते चुप हो जाते हैं

उनके सपनों का हत्यारा

साथ साथ उनके रहते हैं।


चाहे हत्या कुछ भी हो

सपना हो या हकीकत हो

हत्या तो हत्या होती है

यह अच्छी नहीं बुरी होती है।


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