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हम खड़े थे...

हम खड़े थे...

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हम खड़े थे घड़ी की सूइयाँ

गिनते उनकी चौखट पर...

एक दीवाना सा, उछलता, बेबाक

बातों पर मचलता दिल लेकर...

ठान के चले के आज जो हो अंजाम,

दिल में कुछ बाक़ी ना रहें,

पर थरथराते रहें होठ और

लफ्ज़ भी आगे बढ़ने से कतराते रहे...


फिर सोचा चलो जो ना ज़ुबान कर सके

वो दो आंखों से मुकम्मल किया जाए,

जो ये हर रोज़ मर मर के ज़िंदा रखती हैं

उस बेचैनी को रिहा किया जाए...

एक एक बात आंखों में जोड़े,

हर मुलाकात जो सामने दौड़े,

दुनिया के बंधन पीछे छोड़े,

किस्मत की लकीरें मोड़े,

आए उनके दर पर,

बुलाया उनको जो दस्तक देकर,

यूं आए वो, हो गये रूबरू,


धड़कनों ने किया फिर से दौड़ना शुरु,

जो मिली मुस्कुराहटें उनकी हमसे

फिर एक बार हम गये परे होश से,

आंखों पे उनकी जो गयी नज़रे तो

पढ़ी हमने कुछ बातें ऐसी,

जो हम लाए थे सौगात उनके लिए

वो हम ही को मिली हो जैसी,

अगले ही पल उनके होठों से

एक नाम आया,

उन्होंने उस नाम को इस खुशी की

वजह बताया!

वो नाम कुछ मिल ना पाया हमारे

नाम से,

उनकी खुशी और हमारा टूटा दिल

हम देखते रहे इत्मिनान से...


हम खड़े रहें चेहरे पर एक बड़ी

और झूठी सी मुस्कान लेकर,

अंदर ही अंदर समेट रहे थे सारे ख़त

दिल में चंद लिफाफ़ों में भरकर...

कुछ लम्हों ने ये क्या ग़जब कर दिया है,

हम हम ना रहें और उनकी दुनिया में

किसी का सवेरा भर दिया है...

अब धुँधला सा हो चुका है जहां,

बस यहीं याद आता है रह रह कर...

हम खड़े थे घड़ी की सूइयाँ

गिनते उनकी चौखट पर...

एक दीवाना सा, उछलता, बेबाक

बातों पर मचलता दिल लेकर...



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