हम आशाओं पर जीते हैं !
हम आशाओं पर जीते हैं !
घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं,
रखते हैं चाह अमरता की
और घूँट गरल के पीते हैं।
सीते हैं झूठे वादों से,
हम यथार्थ की फाटी झोली।
कागा के कर्कश स्वर को,
समझ रहे कोयल की बोली ।
विद्वानों को उपहास प्राप्त,
मूरख पा जाता है वंदन।
ईश्वर भी असमंजस में हैं,
किसका मंदिर, किसका चंदन ?
सबको अपनी पड़ी यहाँ,
करूणा के घट सब रीते हैं।।
घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं।।
छ्ल कपट, प्रेम का भेष धरे
मैत्री का जाल बिछाता है।
कंचन पात्रों में जहर भरे,
अमृत का स्वांग रचाता है।
जीवन के चौराहों पर अब,
सारी राहें भरमाती हैं।
दुनियादारी के दाँव पेच,
दुनिया ही यहाँ सिखाती है ।
जीने की कठिन लड़ाई में,
दीनों के सब दिन बीते हैं।
घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं।
यह कामवासना का कलियुग,
यह स्वार्थसाधना का कलियुग,
यह अर्थकामना का कलियुग,
यह छद्म धारणा का कलियुग !
संस्कार पतन का युग है यह,
अन्याय, दमन का युग है यह,
कैसी प्रगति, कैसा विकास,
बस शस्त्र सृजन का युग है यह !
सब संसाधन धनवानों के
निर्धन को नहीं सुभीते हैं।
घनघोर निराशा के युग में
हम आशाओं पर जीते हैं !!!