हाले ज़िन्दगी...! (अंतिम भाग)
हाले ज़िन्दगी...! (अंतिम भाग)
ख़ुद को समझने से अंजान रह जाते हैं,
दूसरों को समझने का हक़ जताते हैं।
ना जाने लोग क्यों झूठी हँसी
अपने चेहरे पर सजाते हैं ।
दर्द तो हर किसी के अंदर है
लेकिन कुछ ही लोग,
उस दर्द को अपने अंदर
समेटे रख पाते हैं।।
जीवन के इस दौड़ में
सब पीछे छोड़ आना पड़ता है।
लड़खड़ाते - डगमगाते कदमों के
सहारे जीवन के पहियों को,
तेज़ गती से चलाना पड़ता है।
जीवन की इस चलती चक्री में,
ना जाने कितने रिश्तों को,
पीसकर उन्हें भुलाना पड़ता है।।
ज़िन्दगी के इस राह में,
अपनों को खोकर-
गैरों के साथ रिश्ता बनाना पड़ता है।
मतलब से बने रिश्तों को भी,
बहुत शिद्दत के साथ निभाना पड़ता है।
मैं कौन हूँ ?
इस सवाल को भूल जाना पड़ता है।
थक कर जब बैठ जाता हूँ
अपने ही अंदर के मुखौटों से,
रातों को रो-रो कर दिल को
बहलाना पड़ता है।।
उन निकलते आँसुओं को
मन के गहराइयों में छिपाना पड़ता है।
ख़ुद को पत्थर दिल साबित करने के लिए
झूठी हँसी को चेहरे पे सजाना पड़ता है।।
यही हाले ज़िन्दगी है ...।
यहाँ सब भूल के भी जीवन बिताना पड़ता है।।
ना चाहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है।।