गजल
गजल
"यारों की महफ़िल" गुजरे जमाने से लगते हैं
सारे रिश्ते नाते आजकल बेगाने से लगते हैं
अजनबियों सा लगने लगा है यह शहर "हरि"
सारे मुहल्ले गली चौराहे अनजाने से लगते हैं
एक भयानक से खौफ में जी रहे हैं सभी लोग
पागलों सी हरकत करते हुए दीवाने से लगते हैं
वो भी क्या दिन थे जब बारात में खूब नाचते थे
अब तो वो सब गुजरे हुए दिन पुराने से लगते हैं
जहां कभी पैर रखने को भी जगह नहीं होती थी
अब वो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे वीराने से लगते हैं
किसी की मौत होने पर भी कोई जा नहीं सकता
मोबाइल से शोक संदेश ही अब तराने से लगते हैं
