ग़ज़ल
ग़ज़ल
वज़ीफे बंटते हैं उंचे घरानों में
चिराग नहीं जलते गरीब आशियानों में
कुदरत का करिश्मा भी खुब है देखो
फुल खिलते हैं बंजर विरानों में
कोई शक नहीं अपनी आवारगी का
हम अक्सर दिखते हैं सुनसान बियाबानों में
खुद से ज्यादा किसी की खुशी का ख्याल
हां यह खुबी तो होती है दीवानों में
चल दिए सबके पीछे आंख बंद करके
हम नहीं रहते ऐसे परहेजगारों में
कोई ख़ामोश तमाशाई बने हुए हैं
कुछ फर्क नहीं इन्सान और दीवारों में
दिल आजारी का गुनाह भी कोई गुनाह है
यह आदत मिलती है नैकोकारों में
अंधेरे से डर कर कहा जाएंगे हम
खौफ आता है अब रौशन चौबारों में।
