ग़ज़ल..5
ग़ज़ल..5
मसनदों से आरजू है चैन की नींद तो दिला दे ।
खो गया हूं मैं मुझको अब मुझी से मिला दे ।।
ये गुंबदें ,ये मीनारें और ये गगनचुंबी इमारतें ।
चल फूंक मार और सबका जर्रा-जर्रा हिला दे।।
किसकी रजा़ पर तुमने यूॅं ही हॅंसा पैबंद पर ।
इस मैले कमीज से ही तमीज का काफ़िला दे ।।
सुना है रिश्ते इस दौर में अदब से ही उलझते हैं ।
फिर तो गुरूर-ए-इमां मेरी भी कई मंजिला दे ।।
बहुत हुआ ज़िंदगी का ज़िंदादिली से जीना ।
अवसान होती अवस्था मेरी अब ईहलीला दे ।।