गीत लिखता हूँ
गीत लिखता हूँ


गीत लिखता हूँ ज़माने
को जगाने के लिए
नहीं यश कीर्ति और
शोहरत को मैं पाने के लिए।
हुयी गुलजार है नफरत
से भरी गलियाँ ये
इल्मे इंसाफ मोहब्बत
को बढ़ाने के लिए
प्रेम की बाग़ में नफरत
भरी न कलियाँ हो
आज गलियों को फिर
गुलजार बनाने के लिए।
जले मंदिर जले मस्जिद
यहाँ ज़माने में
आयते इल्म और गीता
को बचाने के लिए।
जाए मंदिर में जो हिन्दू
मुसलमान मस्जिद में
हम तो तैयार है इन
दोनों में जाने के लिए।
नाम मजहब का यहाँ
कैसा ये बंटवारा है
जिस्म को जान से फिर
आज मिलाने के लिए।
राहें जन्नत में शिवम्
जाना हो जिसे जाये ना
हम तो जीते है मोहब्बत
को बढ़ाने के लिए !