घर
घर
ख़ाली करना दिन भर खुद को।
फिर शाम को आकर भर जाना
कितना अच्छा होता है।
लौट के अपने घर जाना..
लौट के अपने घर जाना
मटमैला सा ही पानी था यूँ तो
मेरे गाँव के उस पोखर काजब भी उतरा
भीगा उसमें, लगता मानो
गंगाजल से तर जाना
बेख़ौफ़ उधर बातें करना
उस सुनसान गाँव की पगडंडी से
और इधर जगमग करती,
शोर मचाती इन शहरी
सड़कों से डर जाना
कच्चा सा आँगन मेरा
महका रहता जीवन की आवाजा ही से
नयी कोंपलों का खिलना, उसमें वो
वो बीते फूलों का झर जाना
आधी ही खुलती खिड़की
जिस से झाँका करती थी वो
जो खुले तो मेरा फिर जी उठना और
जो बन्द हुई तो मर जाना
जब से चला शहर को मैं
तब से बाट जोहती हैं वो
जाने कब पहुँचूँगा घर मैं
जाने कैसे उतरेगा
उन पथरायी आँखों का हरजाना।
ख़ाली करना दिन भर खुद को
फिर शाम को आकर भर जाना
कितना अच्छा होता है।
लौट के अपने घर जाना..
लौट के अपने घर जाना।