Blogger Akanksha Saxena

Abstract

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घमंड काहे का सनम..

घमंड काहे का सनम..

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घमंड काहे का सनम 

साथ जाने को कुछ भी नहीं

पड़े यहीं सिंहासन सारे 

कभी बैठा करते थे शहंशाह 


घमंड काहे का सनम 

साथ जाने को कुछ भी नहीं 

खंडहर बने महल 

वीरां पड़ीं वो हवेलियाँ 

कोई नहीं अपना कहने को 

झूठी हैं सारी पहेलियाँ


घमंड काहे का सनम 

साथ जाने को कुछ भी नहीं 

खुद के अन्दर छिपा है बैठा 

जिसको आत्मा कहते हैं 

जन्मों-जन्मों से जिसको 

समझ न पाए हम 

क्या जानेगें इस दुनिया को 

जब खुद का अपना पता नहीं 


घमंड काहे का सनम 

साथ जाने को कुछ भी नहीं 

प्रेम का नाटक बहुत है 

घर मैं दफ़नाता कोई नहीं 

जब खुद के घर में

खुद के लिए,

एक कोना तक नहीं 


फिर, घमंड काहे का सनम 

साथ जाने को कुछ भी नहीं ...





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