ghazal ,romance
ghazal ,romance
जमीं पे बैठकर पत्थर तराशता हूं मैं
वो इक मूरत जिसे दिनभर संवारता हूं मैं
कमाल शख़्स है वो बात भी नहीं करता
कमाल ये भी ,उसे हर पल पुकारता हूं मैं
वो तो आंसू भी मेरे पोंछने नही आता
कभी जब उसके गिरे तो संभालता हूं मैं
मेरे अपनों से मिरा ना जानें कैसा बैर है
जो अपने आप को हर दिन बिगाड़ता हूं मैं।

