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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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फ़िझुल की ऊहापोह

फ़िझुल की ऊहापोह

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फ़िजूल की ऊहापोह में,मैं फंस गया हूं

बिना कुछ किये ही मैं तो उलझ गया हूं

ख़ुद के आंसुओ से प्यास बुझाकर भी,

दुनिया मे,मैं तो प्यासा ही मर गया हूं

यहां पे खड़ा भले खुद की ज़मीन पे हूं,

देखते-देखते ही ज़मीन में,मैं धंस गया हूं

फ़िजूल की ऊहापोह में,मैं फंस गया हूं

अब कौन बचायेगा दुनिया के जंगल से,

में तो हंसते-हंसते ही,बहुत ही रो गया हूं

रोना चाहता हूं,चीखकर,रो नही पाता हूं,

में दरिया के बीच रहकर भी जल गया हूं

फ़िजूल की ऊहापोह में,में फंस गया हूं।

अब तो मेरा बस एक ही मनमीत बचा है

जग में मेरा बालाजी ही एकमात्र सगा है

तेरे दम पे टूटे आइने में भी हंस गया हूं

टूटी जिंदगी है मेरी,फूटी किस्मत है मेरी

तिनका होकर भी पर्वत से लड़ गया हूं

अपने धैर्य और आत्मविश्वास के दम पे,

टूटी कश्ती होकर भी साहिल बन गया हूं

कोई नही देगा सहारा,खुद को बना तारा

सँघर्ष से,में मंजिल का पत्थर बन गया हूं

फ़िजूल की ऊहापोह से,मैं निकल गया हूं।


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