एक शिक्षक, प्राइमरी का
एक शिक्षक, प्राइमरी का
आज मम्मी संग, स्कूल का कोट में लाई थी
फिर बाज़ार में थोड़ी चट-पट भी खाई थी।
खाते - खाते हमको एक बात ने बड़ा सताया,
कि हमे तो मम्मी-पापा ने बस्ता-कपड़ा सब दिलवाया।
महंगे स्कूल की फीस भरकर,
फिर टिफिन भी खुद बनाया।
किताबों का खर्चा भी, खुद ही उन्होंने उठाया,
अच्छे से पढ़ना बेटा, यह भी हमें सिखलाया।
एक दिन प्राइमरी की प्रिंसिपल जा रही थी,
खूब सारे कपड़े-बस्ते लाद के ला रही थी।
बच्चो को खाना भी फ्री में खिला रही थी
बस्ते, कपड़े, स्वेटर सब उन्हें सरकार दिलवा रही थी।
हमारी तो दो-तीन साल तक एक ड्रेस आराम से चल जाती हैं,
पर उन बच्चो की तो हर साल नई आती हैं।
उनके माँ-बाप सरकार से कितनी सुविधा लेते हैं,
फिर भी बच्चो को घर के कामों में लगा देते हैं।
स्कूल जाने में वे बच्चे कितनी करते हैं आनाकानी,
और फिर कहते हैं कि सरकार तो करती हैं मनमानी।
और किताबें !
वे तो रह ही गई, चलो उनकी भी बात करते हैं
जिनके लिफाफे बनाकर वे बच्चे बेचते फिरते हैं।
चलो गरीब है, माना,
पर पढ़ना-लिखना ही नही, ऐसा क्यों ठाना।
जूते, बस्ते,कपड़े,खाना सब दिया जाता हैं,
पर उन बच्चो से पढ़ने का वादा भी लिया जाता हैं।
उन्हें पोलियों ड्रॉप्स से लेकर,
आयरन की गोली खिलाते हैं हर हफ्ते,
पर फिर भी क्यों वे बच्चे भटक जाते है अपने रास्ते।
और वे हमेशा उस शिक्षक को निराश ही कर जाते है,
जिसके कारण वे मास्टर ही कामचोर कहलाते हैं।
फिर विभाग अध्यापक की पूँछ में आग लगता हैं,
बच्चो को स्कूल लाने के लिए उन्हें घर-घर भगाता हैं।
एक शिक्षक तो हर संभव प्रयास करता हैं,
पर फिर बच्चा पढ़ाई के ऊपर खाने की थाली धरता है।
आखिर कब तक, उन मास्टरों को ही कोसा जाएगा।
वे भी क्या करेंगे, जब बच्चा खुद काम करने
आलू के खेत में जाएगा।
सरकार का लुटेरा फिर उस
अध्यापक को ही ठहराया जाता हैं।
जो थैला भर भर के बच्चो के लिए टॉफी,
बिस्कुट फल,सब लाता हैं।
कुछ कमियों को देख,
पूरे विभाग को क्यो गलत कहते हैं,
क्यों हम सब नागरिक आँखें मूंद के बैठे रहते है।
वो शिक्षक बच्चो में बुराइयों जा बीज नही बोता,
और हमेशा वो ही भ्रष्ट नहीं होता।
दोषी सरकार नहीं, दोषी वे अध्यापक नहीं,
दोषी तो वे अभिभावक हैं,
जो बच्चो की शिक्षा को टाल देते है कही।
और कुछ शब्द मुझे अंत में बड़ा ही सताते हैं,
कि अंत में हमेशा प्राइमरी के
टीचर ही क्यों दोषी ठहराए जाते हैं।