एक रिश्ता
एक रिश्ता
कमाल ज़बत को ख़ुद भी तो आज़माऊंगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊंगी
सपुर्द कर के उसे रौशनी के हाथों में
मैं अपने घर के अंधेरों में लौट आऊँगी
बदन के कब्र को वो भी ना समझ पाएगा
मैं दिल में रोउंगी आँखों में मुस्कुराऊंगी
वो क्या गया की रफ़ाक़त के सारे लुतफ़ गए
मैं किस से रूठ सकूंगी किसे मनाऊंगी
वो एक रिश्ता बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पर सर झुकाऊंगी
समाअतों में घने जंगलों की सांसें हैं
मैं अब भी तेरी आवाज़ सुन ना पाऊंगी
जवाब ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था कि मैं उस को भूल जाऊंगी

