एक मई का दिन
एक मई का दिन
कुछ भी तो ठीक नहीं
इस दौर में!
वक्त सहमा हुआ
एक जगह ठहर गया है !
जैसे घडी की सुइयों को
किसी अनजान भय ने
अपने बाहुपाश में
बुरी तरह जकड़ रखा हो।
व्यवस्था ने कभी भी
व्यापक फलक नहीं दिया
श्रमिकों को
जान निकल देने वाली
मेहनत के बावजूद
एक चौथाई टुकड़े से ही
संतोष करना पड़ा।
एक रोटी भूख को
सालों-साल
पीढ़ी-दर-पीढ़ी !
एक प्रश्र कौंधता है
क्या कीमतों को बनाये रखना
और मुश्किलों को बढ़ाये रखना
इसी का नाम व्यवस्था है ?
“रूसी क्रांति” और
“माओ का शासन”
अब पढ़ाये जाने वाले
इतिहास का हिस्सा भर हैं।
साल बीतने से पूर्व ही
वह ऐतिहासिक लाल पन्ने
काग़ज़ की नाव या हवाई जहाज
बनाकर कक्षाओं में
उड़ने के काम आते हैं।
हमारे नौनिहालों के
जिन्हें पढ़ाई बोझ लगती है !
एक मजदूर से जब मैंने पूछा
क्या तुम्हें अपनी जवानी का
कोई किस्सा याद है ?
वह चौंक गया !
मानो कोई पहेली पूछ ली हो ?
बाबू ये जवानी क्या होती है !
मैंने तो बचपन के बाद
इस फैक्ट्री में सीधा
अपना बुढ़ापा ही देखा है !
मैं ही क्या
दुनिया का कोई भी मजदूर
नहीं बता पायेगा
अपनी जवानी का
कोई यादगार किस्सा !
अब मन में यह प्रश्र कौंधता है
क्या मजदूर का जन्म
शोषण और तनाव झेलने
मशीन की तरह
निरंतर काम करने।
कभी न खत्म होने वाली
जिम्मेदारियों को उठाने
और सिर्फ दु:ख-तकलीफ
के लिए ही हुआ है ?
क्या यह सारे शब्द
मजदूर के पर्यायवाची हैं ?
मुझे भी यह अहसास होने लगा है
कोई बदलाव नहीं आएगा
कोई इंकलाब नहीं आएगा।
पूंजीवादी कभी हम मेहनत कशों का
वक्त नहीं बदलने देंगे!
हमें चैन की करवट नहीं लेने देंगे।
हमारे हिस्से के चाँद-सूरज को
एक साजिश के तहत
निगल लिया गया है !
अफ़सोस पूरे साल में
एक मई का दिन आता है
जिस दिन हम मेहनतकश
चैन की नींद सोये रहते हैं !
