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हसी के गुलदस्ते

Comedy

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हसी के गुलदस्ते

Comedy

एक कवि बसंत पंचमी के मंच पर

एक कवि बसंत पंचमी के मंच पर

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कवि सम्मेलन के एक मंच पर 

एक कवि कविता सुना रहे थे...

कविता क्या... श्रोताओं को 

एकबारगी बोर कर रहे थे...!

कवि ने जैसे ही कविता पाठ शुरू किया 

श्रोताओं ने वाह वाह करना शुरू कर दिया 

कविता कुछ ऐसी थी -

"उपवन, पतझड़, सावन, बसंत 

मोर मन हुए पुलकित अनंत 

चहुँ ओर रिमझिम बारिश 

सड़क पे पड़ा है एक लावारिश!"


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श्रोताओं में से एक ने पूछा -

कविवर - भावार्थ भी तो बताते चलिए 

और हमारे कान के पर्दे भी खोलते चलिए...

चश्मा उतारकर, करवट बदलकर पान थूककर कवि ने उत्तर दिया -

यदि आपको नहीं सुननी है हमारी कविता 

तो यहाँ से आप चलते बनिए 

लेकिन हमारा भेजा तो मत चाटिये  

कविता तो बस कविता होती है 

उसकी टाँग मत तुड़वाइये....!


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मैंने मन ही मन में सोचा 

कितना आसान है आज कवि बनना 

लिख दिए जो भी हो कल्पना 

बस एक कागज लिया और कलम चलायी  

सब चलता है चाहे किसी की रचना हो चुरायी,

ऐसा लगा मानों मैं भी बन गया कवि

जहाँ न पहुंचे रवि, पहुँच गया मैं बनकर कवि

ख्यालों के तख्तों ताज पर बैठ 

मेरा मन उड़ चला उस ओर कि

मैं भी एक 'प्रगतिवादी' कवि हूँ 

चहुँ ओर श्रोताओं की भरमार हूँ 

हर पंक्तियों पर तालियों के 

गड़गड़ाहट की बौछार है .....!


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यही सोचकर हमने भी किया शुरू 

प्रयास कविता लिखने का...

आखिर लिख डाली हमने भी कविता 

जिसके पात्र थे धर्मी रावण और पतित सीता 

अब पहुंचे हम संपादक से मिलने 

सपने संजोये आँखों में मैंने कहा -

महोदय - आपकी सेवा में आया हूँ

और आपके लिये कविता लाया हूँ

संपादक ने देखी कविता एक नजर 

पढ़कर देखा मेरी ओर घूरकर  

और कहा मुझसे -

ये कविता भी कोई कविता है लल्लू -

जैसे छछूंदर के सिर पर चमेली का तेल  

ये खा नहीं रही किसी कविता से मेल

न तो ये कविता किसी ब्लॉग पर चलेगा 

न ही इसे कोई पाठक ही मिलेगा!


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मेरे सपने हुए चकनाचूर... 

मानों आसमां से गिरे खजूर  

खजूर में लटके लटके सोचा कि

"गए ज़माने प्रसाद - पंत के 

यहाँ निश दिन कवि पैदा होते हैं 

आज रचना उन्हीं के छपते हैं 

जो संपादक के होते चहेते हैं!"


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