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AMEET COOMAAR

Abstract Others

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AMEET COOMAAR

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दरख्तों की सिस्कियाँ

दरख्तों की सिस्कियाँ

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गिरी दीवार को फिर क्यूं उठाये जाते हो

सरे बाज़ार नफरतों की पौध क्यूं लगाते हो

पैग़ाम मोहब्बत का परिंदे लाते है

जाल बिछा के उड़ने पे रोक क्यूं लगाते हो।


मौसम बहारों के बगीचों में रंगीन हुए

चाय के प्यालों में किस्से दो तीन हुए

तितलियों के परों पर इंद्रधनुष खेले

दिलों के रास्तों पे क्यूं न हम साथ चलें।


आज दरख्तों से फ़िर मिलना चाहा

फ़साना पास बैठकर सुनाना चाहा

कभी तेज़ कभी मंद थी उनकी साँस

यार पुराना मिलकर जैसे सिस्काया

इस फरिश्ते के जख्मों पे मरहम रख दूॅं

जैसे कहता हो न जाओ मुझे आज छोड़कर।।


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