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Abhilasha Chauhan

Abstract

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Abhilasha Chauhan

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धुरी इस सृष्टि की

धुरी इस सृष्टि की

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अनीतियां

कुरीतियां

ये रूढ़ियां

देती हैं दंश जब,

ममतामयी

कोमलांगी

स्नेह निर्झरणी तब,

बन ज्वालामुखी।


अंतस में जिसके

पिघलता है लावा,

जूझती परिस्थितियों से

बनती जाती लौह सम,

हारती नहीं

भागती नहीं

करती सामना।


वक्त के बेरहम हथौड़ो से

उसके अंदर का

पिघलता लोहा

पा लेता है आकार,

धैर्य से वह लेती काम

बन जाती है लौह चट्टान।


वह जो धुरी है सृष्टि की

संचालिका इस सृष्टि की

जो टूटती नहीं

जो झुकती नहीं

गढ़ती नए आयाम

विश्व-पटल पर।


हां, वह नारी है

नहीं अबला,

न बेचारी है

वह परिस्थितियों से,

कभी नहीं हारी है।


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