धुंध
धुंध
सदियाँं बदली युग बदले ।
बदल गए जीवन के मायने ।।
पर बदल ना पाई रे नारी तू ।
अपने जीने के पैमाने ।।
है आज भी तू वही ।
सदियों की अग्नि परिक्षिता ।।
है आज भी तू वही ।
मर्माहित शोषित दलित सभीता ।।
है बुलंदियों पर ।
जब यह नया जमाना ।।
पहनाया जा रहा तुझे ।
रुढिगत वही पुराना जामा ।।
अस्तित्व तेरा क्या है ।
अभिज्ञान न हो पाया ।।
किस सत्ता के पीछे चलती है ।
तू अदर्शन सी छाया ।।
आकार नहीं तेरा ।
क्या कोई स्वयंभू ।।
लाँघ सके जो जड़ता परिधि ।
करे निजता का बिंब अंकित ।।
होगा पूर्वाकार भले ही धुंधला ।
मगर वक्त कर देगा इसे उजला ।।
धुंध के उस पार ।
बनेगा जो आकार ।।
भरे होंगे उसमें जीवन के रंग हजार ।
होगा जहाँ नतमस्तक सहस्त्र बार ।।
यह नन्हा आशादीप ।
लाएगा चांदनी धूप ।।
घबरा न तू अकेलेपन से ।
हट न तू लघुपन से ।।
एक दिन यही लघुता ।
बन जाएगी गुरुता ।।
फिर सच लगेगा यही ।
पर नजरों में भी सही ।।
कि आशा में जीना ।
आशा में मरना ।।
ही है सार्थक जीवटता ।
समाई हो जिसमें सच्ची कर्मठता ।।
अस्तित्व हीन नहीं ये जीवन ।
सौरभ विहींन नहीं ये उपवन ।।
बस कुछ बीजों का करना है रोपण ।
और चंद खुशियों का अर्पण ।।
छटेगा फिर 'धुंध' का अंधेरा ।
होगा जहां नए मूल्यों का बसेरा ।।
मुस्काती किरणों का सवेरा ।
और वसुधैव कुटुंबकम का डेरा ।।
