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Ankita Saini

Tragedy

4  

Ankita Saini

Tragedy

दौर जिंदगी का

दौर जिंदगी का

2 mins
280

आँखों में बेबसी,होठों पर ख़ामोशी,

दिल में दर्द और चेहरे पर मायूसी,

ये कैसा दौर आया है?

इस दौर ने ये कैसा रंग दिखाया है ?

हर कोई अपनों से दूर है,

टूटती साँसों के आगे हर कोई मजबूर है,


कहीं शमशानों के आगे लगी लम्बी कतार है,

कहीं अस्पतालों के बाहर खड़े लोग दीखते लाचार हैं,

अब तो फिजाओं में भी मौत का धुआँ छाया है,

एक बीमारी ने ये कैसा हड़कंप मचाया है,

श्मशानों में पहले तो कभी न लाशों के युं ढेर लगे थे,


तरक्की की अगर यही हकीकत है तो हम तो पिछडे ही भले थे,

कम से कम खुली हवा म सांस तो ले रहे थे ,

तकलीफ में एक दूसरे का साथ तो दे रहे थे,

अपनों के बीच यूं शीशों की दीवार तो नही थी ,

हां तरक्की थोड़ी कम थी पर ज़िंदगियाँ इतनी लाचार तो नही थी,


कोई गिरता था तो सँभालने के लिए हाथ तो आगे बढ़ते थे,

समशानों में जगह की कमी के कारण शव यूँ न सड़कों पर सड़ते थे,

तकलीफ के समय में लोग खुद ही तो चले आते थे,

गिन के बुलाने की ज़रूरत नही थी,आंसू पोछने के लिए लोग खुद ही चले आते थे,

और अगर यही तरक्की की राह है तो ले चलो हमें उसी ज़माने में,


जहाँ भले ही हमारे पास पैसे कम थे,पर होठों पर हंसी थी दिलों में कहाँ गम थे,

जो भी थे सामने थे, मुखोटों का कहाँ हमें सहारा था,

दिखावे की दुनिया नहीं थी तब, रिश्ता जिनसे भी था बस गहरा था,

पर अब सब बदल गया है ,

इंसानियत ही नही इंसान के अंदर का इंसान ही मर गया है,


अब तो दो गज की दूरी इंसानों से है जरूरी,यही बन गयी हमारी रीत है

और पूछ बैठती हूँ अब कई बार खुद से क्या यही मानवता की जीत है ?


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