घरेलू हिंसा
घरेलू हिंसा
जब जन्म लिया तो कहाँ सोचा था कि ज़िंदगी इतने दर्द देगी,
लड़की बनाकर सारी खुशियां ही छीन लेगी,
कभी नहीं सोचा था कि घर के ऐशो आराम यूँ खो जायेंगे,
शादी के बाद अपने ही पराये हो जायेंगे
ससुराल में एक नया संसार बसाने का सपना देखा था,
किसे पता था की किस्मत का कुछ और ही लेखा था,
कौन जानता था जिस सपने के साथ बाबुल का आँगन छोड़ा था,
वही सपना उसने सबसे पहले तोडा था,
पापा की परी की जिंदगी,आज नरक से बदतर हो गयी,
शादी क्या हुई उसकी तो हंसी ही खो गयी,
खुले मे जीने वाली आज चार दीवारों में कहीं खो गयी,
जिंदगी को जी भर कर जीने वाली की जिंदगी ही कहीं खो गयी,
पति के नाम पर हैवान से शादी हो गयी,
देखते ही देखते सारी ख्वाइशें कहीं खो गयी,
सपने तो कांच की भांति फर्श पर बिखर गए,
और अपने भी तो साथ निभाने से मुकर गए,
आँखों की नमी और चेहरे की बेबसी सब बयां करती थी,
औरत थी न! औरत थी न इसलिए मर-मर के जीती थी,
शरीर पर पडे चोट क निशान,घर में होने वाली हिंसा के सुबूत थे,
लकिन सब देखकर भी सभ चुप थे,
क्युकि, पति की मार हिंसा नही उसका हक समझा जाता है
और पत्नी को पत्नी नहीं महज एक खिलौना समझा जाता है
तभी तो सुबह उसकी सिसकियों के साथ होती है तो रात,
रात आंसुओ के साथ ढलती है,
हर दिन वो अंगारों पर चलती है,
उसके हर कदम पर बंदिशें उसकी हर नज़र पर उंगलियां उठती हैं,
न जीती है वो न मरती है वो बस जिंदा लाश सी यूँही फिरती है वो,
न जाने कबतक एक औरत ये सब सहेगी,
न जाने कबतक हमारे देश की जनता घेरलू हिंसा के खिलाफ चुप रहेगी?
और न जाने क्यों हम लड़कियों के साथ ऐसा होता है,
कमजोर समझकर हरपल हमपर वार होता है,
न जाने क्यों ससुराल में हमे सम्मान नही मिल पाता,
और न जाने क्यों बेटी से बहु होते ही हमारा नसीब है बदलता।।