दावत गरीब की
दावत गरीब की
कभी चूल्हा होता है ठंडा
और पेट में होती आग है
चूल्हा जिस दिन जलता है
दावत उस दिन गरीब की
चहल पहल है झोंपड़ी में
खाने का हुआ जुगाड़ है
माँ की आँखें भर आयी
आटे से ऊंगली नम हुई
सरसों दा साग ना ही
मटर पनीर की आस है
बाजरे की रोटी संग
तीखी चटनी लहसुन की
प्याज़ साथ मिल जाये
बस इतना ही बहुत है
सपनों की खिचड़ी है
तो पसीने का पनीर है
वाह वाह क्या स्वाद है
जो जादू माँ के हाथ है
चूल्हे की गरमी सहती है
फिर भी वो हँसती रहती है
स्वाद जो घर की रोटी में
लज्ज़त कहाँ पकवानों में।।