चोट
चोट
चोट लगती थी, आंसू बहते थे
मरहम लगाने को, लोग हमे कहते थे
घाव हमारा बढ़ता था, हम दर्द सहते थे
ये शौक नहीं था हमारा, दरअसल हम तन्हा रहते थे
आंसुओं की धार में, हम आंसू बनकर बहते थे
दर्द को रोकने के लिए, हम मरहम मरहम कहते थे
मरहम का तो पता नहीं, बस ठोकरें हम सहते थे
बस इस चोट को भूल हम, तेरी यादों में खोये रहते थे
तडपते थे मगर,तेरी यादों के सागर में बहते थे
दर्द होता था मगर, किसी से न हम कहते थे
मुस्कुराते थे मगर, सब कुछ हम सहते थे
समझा न कोई दर्द को हमारे, बस अकेले में हम रोते रहते थे।