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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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"चलते ही रह गये"

"चलते ही रह गये"

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जिंदगी में चलते गये,लोगों द्वारा चलते ही रह गये

जिंदगी में छलते गये,लोगों द्वारा छलते ही रह गये

होश आया तो पता चला,सफर में पीछे ही रह गये

भरोसेमंदों द्वारा ठगे गये थे,ओर ठगते ही रह गये

सब ऊंचाई चढ़ते रहे,हम नीचे ताकते ही रह गये।

सीधेसादे पेड़ थे,सीधेपन कारण चीखते ही रह गये

सब शूलों से डरते,हम फूलों से भी डरते ही रह गये

हम कोई भावहीन पत्थर के टुकड़े हृदय नही थे,

पर अपनों के सितम से खुद को पत्थर कह गये

नाजुक मोम थे,अंगारे भी हंसते-हंसते ही सह गये

अपनों के गम को भी हम फूलों के बगीचे कह गये

जिंदगी मे चलते गये,लोगो द्वारा चलते ही रह गये

अब से अपनी सुनेंगे,पहले बहुत अनकहे रह गये

दुनियावाले क्या कहेंगे,इससे कोसो दूर चले आ गये 

अब से जिएंगे जिंदगी,न काटेंगे हम तुझे जिंदगी

जिंदगी जीने में पहले ही हम बहुत पीछे रह गये

इस जिंदगी में साखी हम बहुत मुर्दा शख्स रहे,

अब से जिंदादिली से इतने ज़्यादा हम भर गये

श्मशानों के मुर्दे हमसे,मुस्कराहट उधार ले गये

बहुत चले,पैरो पर खड़े हो चलना सीख ही गये।



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