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dr.Susheela Pal

Abstract

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dr.Susheela Pal

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चिंतन

चिंतन

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202


मैं भीतर गया मै भी तर गया

प्रेम से ही मुकर गया

ईर्षा द्वेष की भावना लिए सपने दरवाजों से

झांका नहीं करते

नींद भी अदना चाहिए सपनों को बुनने के लिए 

बारिश भी लुका छिपी खेल रही बादलों संग लुत्फ उठा रही है धरती

सौंधी - सी मिट्टी की महक लिए 

कुढ़ता जा रहा है मनुष्य एक दूसरे को गिराने से

जलन की ऐसी तपीस मेंजी नहीं पा रहा है सुकून के लिए 

कोई तो जुगत लगा ए दिल आदमी बस आदमी बन पाए

जीवन की इस आपाधापी में' साथी ' बस मुस्कराने के लिए। 


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