छोटा स्टेशन
छोटा स्टेशन
मन बेकल सा है आज
कहीं दूर के सुनसान से स्टेशन पर रेल की बाट में बैठा यात्री मानो
नीम के ठीक निचे वाली बैंच पर
लम्बी दोपहर के ढलने से पहले घूरता लोहे की तपती पटरी से निकलती नमी के नाचते परदों के पार की लहलहाती खेती
ध्यान लगाता पास के ईंख की कटाई के बीहड़ संगीत में
या रह रह कर रेंकते सूखे नल से बँधे बछड़े की आवाज़
और चटक रहा हो जादु धूप का दूर से आती रेल की पुकार से मानो....
मन अब पहला सा नम ना रहा, पैना हो चला....
चीर कर पल भर में चार दिवारी
चौड़ी सड़कें
भव चौकस निर्माण
अनजान सर्द हवाऐं
सूने समन्दर
और
बाकी दूरियाँ
लपक के चढ़ गया अपनी रेल,
खिड़की के बगल वाली सीट की टोह में
ताकि साफ़ देख सके
नज़दीक आतीं नज़दीकियाँ
और दूर जाती दूरियाँ
