चाय जरा सी
चाय जरा सी
ऐसे ही बस कोई कहीं,
हो फुर्सत में वो तभी सही,
जो दिल की कहे, जो अपनी सुने,
हो चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
वैसे ही बस, कहीं कभी,
हो खुली हवा, हो धूप खिली,
कुछ यादें चुनें, कुछ सपने बुनें,
और चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
फिर जैसे तैसे, बस कभी-कभी,
हो रात में बेहद ठंङ घुली,
कुछ चुप से रहें, कुछ तारे गिनें,
बस चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
कहने सुनने की बात नहीं
जो हो जाए अनहोनी बङी,
कुछ कह ना सकें, खामोश रहें,
तब चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
जो यहां वहां, ज्यों अभी-अभी,
हो जल्दी में कोइ लहर चली,
बिन कहे सुनें, बिन सुने कहें,
फिर चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
ना कुर्सी और ना मेज कभी,
पत्थर पे बैठी छांव भली,
कुछ वादे करें, बिन बात हसें,
जब चाय जरा सी, ना कोई जिरह।
बैठे बैठे बिन बात कभी,
कर बैठें हों जो कहा-सुनी,
अनकही सुनी अनसुनी करें,
ज्यों चाय जरा सी, ना कोई जिरह।