बिंदी
बिंदी
एक स्त्री जब श्रृंगार करती है
तब वह सबसे कम समय परन्तु सर्वाधिक
एकाग्रता अपनी बिंदी लगाते वक्त रखती है,,,
वह आइने में एक नजर में जान जाती है
कि भौहों के बीच कहां बिंदी जचेगी,
परन्तु रात में वो स्त्री उसी बिंदी को आइने पर
चिपका देती है, या फिर बेड के किसी कोने पर।
अगर नहीं चिपका पाती है तो वही बिंदी
तकिए पर लग जाती है,
और वहां से बच गई तो उसे आप बाथरूम के फर्श पर
अपनी पकड़ खोते हुए बहते हुए पा सकते है।
है तो आखिर एक बिंदी ही ना, जो हर सुबह नई होकर
परिचित माथे पर लग जाती है,
फिर भी एक स्त्री का बिंदी से मोह भंग नहीं होता।
यह कोई बिंदी दर्शन नहीं है। यह कुछ और ही है..
सोचिए स्त्री को बिंदी इतनी प्यारी क्यों हुई..?.
वो भी उस बिंदी से जो हर सुबह बदल दी जाएगी।
असल में वो प्रेम है उसके प्रियतम के प्रति,
अपने मान के प्रति, अपने सम्मान के प्रति..,,,,
बिंदी तो सिर्फ एक बहाना है क्योंकि भारतीय स्त्रियां
खुल कर प्यार जता नहीं पाती,
परन्तु वो बताना चाहती है कि हर रोज बदलने वाली बिंदी पर
मेरा इतना ध्यान है तो फिर प्रियतम तुम तो मेरे अर्धांग हो।
भारतीय नारी के निश्चल प्रेम को नमन