बीते हुए कल...
बीते हुए कल...
अकेले बैठे-बैठे
मन में
अकेलापन छा जाता है।
तब
कुछ खास
आभास होता है।
जिस्म पड़ जैसे
हवा का झोंका छेड़ रहा हो।
जैसे प्रकृति
अपने पास आने का
इशारा कर रही हो।
हिला-हिला कर हाथ अपना
इंद्रिय झंकृत हो रही है।
वर्षों बाद
शान्ती,खुशी,
और
अपनापन
महसूस कर रहा हूँ।
पड़ सता रहा है
वह वृक्ष
वो पत्ते
वो नदी, और वह किनारा।
जहां घंटो बातें होती
अकेले।
याद आने लगी अपना गाँव
वो गली
वो मन्दिर
और वह बरगद पुराना।
हां अच्छा लगता था
बैठना अकेला।
खो गया सब
बची शेष बस यादें।
आह!
तरुवर की ठंडी छाया
मीठा पानी
दृश्य
अति प्यारा।
कोई चले, ना चले
चलती है वक्त
अपने रफ्तार से।
हम कहां आ गये?
गाड़ी कि रफ्तार से।
पीछे छूट गई
वो लहलहाते खेत
सुहानी हवा
गंगा का निर्मल जल।
कहां गया?
हमारा बीता कल।
कूदते-फांगते
हवा को चीरते
आ गया ये
चौकाचौंध
भयावह पल।
आह!
वो सुहाना पल
बीता हुआ कल।