STORYMIRROR

नमिता गुप्ता 'मनसी'

Abstract

2  

नमिता गुप्ता 'मनसी'

Abstract

भीतर की आग..

भीतर की आग..

1 min
131

ये भीतर की आग ही है न

कभी शब्दों में सिमटती है

कभी..

पिघलती है आंसुओं में,


फिर भी

रह जाती है कहीं

सुलगती सी

..राख में ,

न जाने क्यों !!



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract