बेटी दुर्वादल सी
बेटी दुर्वादल सी
कैसा भी हो आंगन
कोने अँतरे बिछी रही,
हरी-हरी और अपनी,
हरितिमा से सबको,
हरियाने को आतुर।
आक धतूरा नागफनी,
सब पर ,
तितली जैसे उड़ी फिरी।
सजी धजी गुड़िया सी,
गाती गुनगुनाती,
उत्सव जैसे बनी रही।
रखा पिता का मान,
आन पर जीवन किया कुर्बान।
चली डोली में पी घर,
सूना पीहर का मधुबन।
गुंजाती पायल की रुन-झुन,
कदम मुबारक पड़े जहाँ पर,
उतर आई जन्नत वहाँ पर
बिखर गईं खुशियाँ।
खिलाना फूलों का उपवन,
सुगंधि फैले दिगदिगन्त तक।
बिछड़ना, पसरना चहुँ ओर,
करना विश्व कुटुंब का रक्षण।
सजाना सृष्टि का नूतन साज,
मिटाना कलुष कल्मष सारे।
बढ़ाना वंश मनु का,
करना श्रद्धा का संचार।
कितनी ही आँधी आये,
मर्यादा की रक्षा करना,
धरती की क्यारी ,
सदा सजाये रहना,
बेटी दुर्वादल सी
धरती का सिंगार किये रहना ।