बेनूर ज़िंदगी
बेनूर ज़िंदगी
कब चारदीवारी मे कैद हो गई ज़िंदगी
हमको ये एहसास तक न हुआ
तितली सी उड़ती थीं उमंगें कभी
न जाने कहाँ गुम हो गईं
अब तो न सावन सूखे न भादों हरे
न कोई गीत न मलहार
मचलती थीं जो हर बात पर
वो शख्सियत न जाने कहाँ खो गई
न कोई ख्वाहिश न खलिश
न जाने ज़िंदगी कब बेनूर हो गई।
